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नैतिक मूल्य बनाम दिखावा

विभा पोखरियाल नौडियाल शिक्षिका

फलाने का बेटा या बेटी कितने संस्कारी हैं, जब भी मिलते हैं पैर छूते हैं....... कुछ तुम भी सीख लो ! पडोस का बच्चा 90% लाया है, और तुम पर तो हम बेकार ही खर्च किए जा रहे हैं....और भी ना जाने क्या क्या...,इस प्रकार की बातें आम तौर हर घर-परिवार मे अक्सर सुनाई दे जाती हैं। माता पिता को लगता है कि वो बच्चे पर अपना समय या पैसा लगाकर अहसान कर रहे हैं। ऐसा लगता है बच्चे ने ऊपर से फोन करके बोला हो कि मुझे अपने घर में जन्म देने की कृपा करें।

हम शादी-ब्याह कर परिवार बनाते हैं अपने लिए, ताकि बुढ़ापे में या दुख बीमारी में हमें सहूलियत हो और हम समाज के हिस्सेदार बने रहें। हमारा संपूर्ण जीवन लोगों को प्रभावित करने में लग जाता है बड़ा घर ,बड़ी गाड़ी ,अच्छे स्कूल में एडमिशन, ब्रांडेड कपड़े इत्यादि । वस्तुओं तक तो ठीक है, लेकिन जब बात बच्चे की होती है तो इस प्रकार का व्यवहार चिन्तन का विषय है।

हमें याद रखना चाहिए कि बच्चा कोई उपभोग की वस्तु नहीं और ना ही आप भगवान जहां चाहो वहां उसको स्थान दिला दें। एक छोटा बच्चा जब जन्म लेता है तो वह सत्य के बहुत करीब होता है । अब हमारा रोल देखिए किस प्रकार से हम बच्चों को दिखावा करना सिखाते हैं। हमारा हर काम दिखावे से प्रेरित है, प्रशंसा पाने के लिए ।हम नैतिक मूल्यों की शिक्षा तो देते हैं लेकिन मूल्यों को दिखाने के पीछे भी हमारा स्वार्थ है।

उदाहरण के माध्यम से समझते हैं---सड़क पर किसी का एक्सीडेंट या लड़ाई होता देख हम आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन, अगले ही पल सड़क पर अगर कोई गाय ,कुत्ता , या कोई जानवर सड़क पर हो तो खड़े हो जाते हैं या उसे कुछ खिलाने लगते हैं और हम दिखाते हैं कि हम कितने मानवीय हैं ,इतने दयालु हैं और हमारे अंदर नैतिक आचरण कूट-कूट के भरा हुआ है। दुनिया चाहे कुछ भी समझे , हमारे बच्चे इस दिखावे को भलीभांति समझते हैं क्योंकि बच्चे बहुत अच्छे मनोवैज्ञानिक होते हैं । बच्चों के मन में विडंबना पैदा हो जाती है क्या सही है और क्या गलत ?

एक तरफ हम बोलते हैं कि जिसको पढना होता है कहीं भी पढ़ लेता है और दूसरी तरफ आधी रात को प्राइवेट स्कूल में एडमिशन के लिए मारा-मारी कर रहे होते हैं। नजदीक में सरकारी विद्यालय होते हुए भी कोसों दूर अपने बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने भेजते हैं, आखिर क्यों हम लोग सिस्टम में विश्वास नहीं बना पा रहे हैं? क्या हमें अपने आप पर यकीन नहीं या सरकारी शिक्षकों पर यकीन नहीं यह विचारणीय प्रश्न है। अब समय कौशल विकास का है और डार्विन की थ्योरी आज भी प्रासंगिक है, योग्यतम की उत्तर जीविता ( Survival of the fittest) । हमें अपना रोल निभाना होगा, दिखावे की दुनिया से बाहर आकर वास्तविक मूल्यों से बच्चों को अवगत कराना होगा ।सच को सच और झूठ को झूठ बोलना होगा।याद रखिए आपका बच्चा बाजार से लाई गई वस्तु नहीं है ना ही आप अपनी मर्जी से उसको उस स्थान पर रख सकते हैं , जहां रखना चाहते हैं ।वह एक जीता जागता इंसान है उसके अपने विचार है और वह वही बनता है जो वह सोचता है और हमारा काम उसी सोच को दूषित होने से बचाना है। आइए अपनी कथनी और करनी एक बनाएं और खुद भी खुश रहें और अपने बच्चों को भी खुश रहने दें।

नोट :लेखक के व्यक्तिगत विचार है

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